दस साल बाद फिर कराची। तारीख थी 8 जून 2015। पिछली बार लाहौर से ट्रेन से पहुँचा था और इसीलिए इस बार पहली बार कराची हवाई अड्डा देखने को मिला। साथ में आई रुखसाना बेगम की टिप्पणी- दिल्ली हवाई अड्डे के आगे कितना उजड़ा लगता है। रुखसाना कराची की बेटी और दिल्ली की बहू है। दरियागंज में उसका घर है। चौदह साल पहले हुई शादी के बाद भी अभी तक उसे भारतीय पासपोर्ट नहीं मिल सका है। दिल्ली में पी.आई.ए. के जहाज की प्रतीक्षा करते समय लगातार रुखसाना अपना यह दर्द पद्मा से साझा करती रही थी। पर शायद मायके में ससुराल की बड़ाई जरूरी थी।
बाहर निकलते ही फातिमा हसन सुखद आश्चर्य की तरह मिलीं जो पाकिस्तान में बहादुरी के साथ सारी सीमाओं के बावजूद महत्वपूर्ण स्त्री विमर्श करतीं हैं। वे अंजुमन-तरक्की-ए-उर्दू, पाकिस्तान की जनरल सेक्रेटरी हैं। उनके साथ बैठकर मैं पाकिस्तान के उस चेहरे को देखना चाहता था जिसे हम भारत में बैठे-बैठे बहुत कम देख पाते हैं। पाकिस्तान सिर्फ आतंकवाद या जिहाद का कारखाना नहीं है और इसमें धीमी किंतु मजबूत स्वर लहरी स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदायों और कमजोर राष्ट्रीयताओं की भी बहती रहती है इसका अहसास दूसरे दिन फातिमा हसन के दफ्तर में जाकर हुआ। अंजुमन तरक्की उर्दू, पाकिस्तान कहने के लिए तो एक गैर सरकारी संगठन है किंतु उसे बड़े पैमाने पर सरकारी मदद मिलती रहती है।
अपने बड़े से दफ्तर में पूरे आत्मविश्वास और ठसके के साथ बैठी फातिमा मजे ले ले कर फातिमा उन अनुभवों को साझा कर रही थीं जो एक पुरुष प्रधान समाज में सिंध सरकार के सीनियर अफसर और अब कराची विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में उन्हें झेलनी पड़ती है। लगभग वैसे ही अनुभव जो भारत में उनकी हैसियत की किसी महिला को हो सकते हैं। उन्होंने बताया कि कराची विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद लड़कों से ज्यादा है। उनसे बात करते समय अचानक मुझे याद आया कि एक दिन पहले रुकने के लिए हम कराची यूनिवर्सिटी जा रहे थे तो सारी सड़कों पर बड़ी तादाद में लड़कियाँ घूमती हुई दिखाई दे रहीं थीं, पूछने पर यह पता चला था कि रात आठ बजे तक कक्षाएँ चलती हैं। यह जरूर था कि ज्यादातर लड़कियां अलग-अलग संस्करण के बुरक़े पहने हुए थीं पर जिस तरह लड़के लड़कियां एक-दूसरे से घुले मिले विचरण कर रहे थे वो जरूर मन को सुख देने वाला था। फातिमा हसन का एक शेर पाकिस्तानी औरत की जद्दोजहद और माँग को बखूबी अभिव्यक्त करती है -
आँखों में न ज़ुल्फ़ों में न रुखसार में देखें
मुझको मेरी दानिश मेरे अफकार में देखें
पाकिस्तानी औरत दुनिया की तमाम नारीवादियों की तरह यह माँग कर रही है कि उसका आकलन सिर्फ शरीर से नहीं बल्कि उसकी रचनात्मकता से किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि यह सब इतना आसान नहीं है, उन्हें एक ऐसे समाज की मुखालफत झेलनी पड़ती है जो सिर्फ पितृ सत्तात्मक ही नहीं वरन धर्म से बहुत गहरे जुड़ा हुआ है और धर्म की कट्टर व्याख्या हमेशा औरत के ही खिलाफ जाती है। इस के बावजूद फातिमा हिंदुस्तानियों से नाराज थीं कि उनके लिए पाकिस्तान सिर्फ आत्मघाती हमलावरों और कट्टरपंथियों का पनाहगाह है - वे यह नहीं जानते कि यहाँ भी लोकतंत्र की वही चाह है - यहाँ भी औरतों के मन में खुद को स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने की जिद है। उन्होंने किश्वर नाहीद, ज़ाहिदा हिना, फहमीदा रियाज़ खालिदा हुसैन और उज़मा फरमान फतेहपुरी जैसी फेमिनिस्ट लेखिकाओं और तनवीर अंजुम, आसिफ फरुखी, नासिर अब्बास नय्यर और मरहूम ज़मीर अली बदायुनी जैसे फेमिनिस्ट लेखकों के लेखन और संघर्ष के बारे में विस्तार से बातें की। कराची विश्वविद्यालय के उन छात्रों के लिए हमारे मन में सम्मान पैदा किया जो इतने मुश्किल वक्त में भी कट्टरता से परे हट कर लोकतंत्र की बातें करते हैं।
फातिमा ने फहमीदा रियाज की संस्था वादा (वीमेंन ऐंड डेवलेपमेंट एसोसिएशन), जिससे वे भी जुड़ी हैं, के उन चार बड़े सेमिनारों के बारे में विस्तार से बताया जिन्होंने पाकिस्तान में नारीवादी विमर्श की सही अर्थों में शुरुआत की थी और जिनमें पढ़े गए पर्चों को विस्तार से पुस्तकाकार छापा गया है।
उनकी एक कविता पाठकों को इस संघर्ष से परिचय कराएगी -
मेरी बेटी चलना सीख गई
संगे मील पे हिंसों की पहचान से आगे,
आते जाते रस्तों के हर नाम से आगे
पढ़ना सीख गई
जलती बुझती रोशनियों और रंगों की तरतीब
सफर की सम्तों और गाड़ी के पहियों में उलझी राहों पर आगे बढ़ना सीख गई
मेरी बेटी दुनिया के नक़्शे में अपनी मर्जी के रंगों को भरना सीख गई
मेरी बेटी उँगली छोड़कर चलना सीख गई
इस यात्रा का उल्लेख एक उदास शाम का जिक्र किए बिना अधूरा रह जाएगा। ऐसी शाम को क्या कहिए जिसमें अलग-अलग पीढ़ियों के कवि अपनी कविताएँ पढ़ रहें हों और सभी की कविताओं का स्वर अवसाद, निराशा और विकल्पहीनता से भरा हो। खासतौर से तब जब की कवि एक ऐसी भाषा के हों जिसमें लिखी जाने वाली कविता इश्क, हुस्न और माशूक़ के प्रतीकों से भरी रहती है। कविता पाठ कराची के कवि दंपति अफजाल अहमद और तनवीर अंजुम के घर पर हो रहा था। सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे उनके ड्राइंग रूम में दस-बारह लोग खाने पर इकट्ठे हुए थे और यह स्वाभाविक ही था कि मेरे जैसे दो-तीन को छोड़कर शेष कवियों वाले इस जमावड़े में शीघ्र ही कविता-पाठ का दौर शुरू हो गया। कुछ गज़लों को छोड़कर अधिकतर नज़्में थीं। सभी कराची के दुख से भरी थीं। गज़लें प्रतीकात्मक थीं पर नज़्में सीधे सीधे इस दुख का बयान कर रही थीं और उनमें पसरी विकल्पहीनता खासतौर से आपका ध्यान आकर्षित करती थी। सब कुछ ऐसा जैसे आप किसी अंधी सुरंग में प्रवेश कर गए हों और दूर तक आशा की कोई किरण न हो।
दस साल बाद कराची आया था, मौका था अपने दो उपन्यासों - घर और तबादला के पाकिस्तान में छपे उर्दू संस्करणों के लोकार्पण का। मैंने इस अवसर का उपयोग पाकिस्तानी लेखकों से मिलने जुलने और वहाँ के समाज को समझने के लिए किया। एक सप्ताह का समय मुलाकातों और खाने-पीने की गहमागहमी में कब बीत गया, पता ही नहीं चला पर इन सबके बीच निराशा के उन स्वरों से साक्षात्कार हुआ जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। हर रोज शाम कोई न कोई कार्यक्रम होता और हर मौके पर वक्ताओं की एक बड़ी संख्या पाकिस्तानी राज्य की असफलताओं की लंबी फ़ेहरिस्त लेकर बैठ जाती। अब वह पीढ़ी मुखर हो रही थी जो पाकिस्तान में ही पैदा हुई है और विभाजन की कड़वी स्मृतियाँ उसके जेहन में नहीं है। मैंने पाया कि यह पीढ़ी भारत को बहुत मिले जुले भाव से देखती है। इसे पूरी तरह से प्रेम नहीं कहा जा सकता पर उस तरह की घृणा भी नहीं है जिसकी कल्पना भारत में बैठे-बैठे हम करते हैं।
घरों में टेलीविजन पर दिन रात भारतीय चैनल देखे जा रहे हैं। टैक्सी ड्राइवर से यह पूछने पर कि क्या सिनेमा घरों में भारतीय फिल्में लगती हैं उत्तर मिलता है कि यदि हिंदी फिल्में न चलाए तो हाल खाली पड़े रह जाएँगे। दुकानों पर बालीवुड की हीरोइनों की तस्वीरें उत्तेजक अदाओं के साथ मौजूद हैं। मेरे मेजबान का नाती क्रिकेट का नहीं बल्कि फुटबाल का शौकीन है पर हर प्रमुख भारतीय क्रिकेटर का व्यक्तिगत रिकार्ड उसे याद है पर कभी-कभी कश्मीर और बलूचिस्तान पर बात करते हुए असहज हो जाता है। मुझे लगा की यदि दोनों तरफ के जन साधारण को एक-दूसरे से मिलने के खुले मौके अधिक मिले तो शायद मनों में पसरे संदेहों के मकड़जाल ज्यादा तेजी से साफ होंगे।
बेपनाह मोहब्बतों वाले शहर कराची में उल्लेखनीय मध्य वर्ग की कमी खटकती है। सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन लगभग नहीं है। खटारा बसें दौड़ती दिखीं जिनमें जितने लोग भीतर होते उतने ही छत पर लदे, लगभग बिहार के किसी मुफ़स्सल क़स्बे जैसा दृश्य, इनके बीच कलाकारी दिखाते हुए हाकर जो चलती बस की छत पर माल बेचते हुए चढ़ते उतरते मन में रोमांच पैदा कर रहे थे। शहर में हर जगह रेंजर्स के सशत्र नाके इस बात के गवाह थे कि बावजूद फ़ौजी कार्यवाहियों के अभी भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। आखिरी दिन सबीन महमूद की शोक सभा में कराची आर्ट कौंसिल में एकत्रित चार सौ से अधिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं। लेखकों और वाम पंथी बुद्धिजीवियों को देख सुनकर आश्वस्ति मिली की अभी भी धार्मिक कठमुल्लों से लड़ने का जोश बाकी है।
आखिर में कराची विश्वविद्यालय के अतिथि गृह का एक मार्मिक प्रसंग। सुरक्षा कारणों से पूरा विश्वविद्यालय रेंजर्स की सशत्र निगरानी में है। हर जगह हथियार ताने जवान आपको रोकते-टोकते हैं। मैंने होस्टल में तैनात एक जवान से बातचीत का रिश्ता कायम कर लिया। उसने शुरुआती परिचय के बाद ही बड़ी भावुकता से पूछा कि क्या भारत में लोग पाकिस्तानियों को अब भी याद करते हैं? जाहिर है कि इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता था - मैं सिर्फ नम आँखों से उसे देखता रहा।